गढ़वाल के “52 गढ़” का इतिहास और उनकी कहानी गढ़वाल की समृद्ध प्राचीन राजनीतिक और सामाजिक धरोहर को दर्शाती है। प्राचीन काल में गढ़वाल क्षेत्र में अलग-अलग स्थानीय राजाओं का शासन हुआ करता था, और इनकी सुरक्षा और शक्ति का प्रमुख आधार उनके गढ़ या किले होते थे। “52 गढ़” गढ़वाल क्षेत्र के 52 ऐसे किलों का समूह है, जिनका विभिन्न स्थानीय रजवाड़ों द्वारा नियंत्रण किया जाता था। इस पूरे गढ़-प्रणाली का एकीकरण गढ़वाल राज्य के राजा अजय पाल ने 14वीं शताब्दी में किया था।

प्रारंभिक इतिहास:

52 गढ
52 गढ

गढ़वाल के गढ़ों की शुरुआत प्राचीन काल से मानी जाती है, जब गढ़वाल क्षेत्र में छोटे-छोटे रजवाड़ों का शासन था। इन राजाओं ने अपनी सीमाओं की रक्षा और अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए गढ़ों का निर्माण किया। गढ़ (किला) एक मजबूत और सामरिक संरचना होती थी, जो राजा के सैन्य और प्रशासनिक शक्ति का केंद्र होती थी।

इन गढ़ों का निर्माण मुख्य रूप से दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में किया गया था, ताकि शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षा की जा सके। हर गढ़ का एक राजा या प्रमुख होता था, और ये राजा स्थानीय क्षेत्रों पर शासन करते थे। चूंकि ये गढ़ छोटे-छोटे राज्य थे, इसलिए इनके बीच अक्सर आपसी संघर्ष होते रहते थे।

अजय पाल और गढ़ों का एकीकरण:

14वीं शताब्दी के दौरान राजा अजय पाल का उदय हुआ, जिन्होंने गढ़वाल के 52 गढ़ों को एकजुट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इससे पहले गढ़वाल छोटे-छोटे स्वतंत्र रजवाड़ों में बंटा हुआ था, जिनमें लगातार आपसी संघर्ष होते रहते थे। राजा अजय पाल ने धीरे-धीरे इन गढ़ों को अपने नियंत्रण में लिया और गढ़वाल साम्राज्य की नींव रखी।

अजय पाल ने इन गढ़ों को एकीकृत करके गढ़वाल को एक सशक्त राज्य के रूप में स्थापित किया। इस एकीकरण के बाद गढ़वाल क्षेत्र में शांति और स्थिरता आई, और राजनीतिक ताकत के रूप में गढ़वाल का महत्व बढ़ा। अजय पाल के इस प्रयास के कारण “52 गढ़” एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक अवधारणा के रूप में उभरे।

52 गढ़ का इतिहास

गढ़वाल का यह क्षेत्र मुख्य रूप से पर्वतीय क्षेत्र है, और यहां के शासक स्थानीय किलों (गढ़ों) के माध्यम से अपने क्षेत्रों पर शासन करते थे। गढ़वाल क्षेत्र का इतिहास काफी पुराना है और यह क्षेत्र स्थानीय रजवाड़ों और जनजातियों के शासनकाल में विभाजित था। हर गढ़ का एक राजा होता था, और इनका आपस में सहयोग और संघर्ष चलता रहता था। राजा अजय पाल ने गढ़वाल के 52 गढ़ों को एकजुट करके एक समृद्ध राज्य की स्थापना की। इससे पहले ये गढ़ अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र थे और एक दूसरे से अक्सर युद्ध में उलझे रहते थे। अजय पाल के नेतृत्व में गढ़वाल साम्राज्य का विस्तार हुआ और उसकी शक्ति भी मजबूत हुई।

52 गढ़ों के नाम

इन गढ़ों के नाम और स्थानों के बारे में कई कहानियाँ और लोक कथाएं प्रचलित हैं, हालांकि इनमें से कुछ गढ़ों के नाम अब समय के साथ खो गए हैं या उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है। फिर भी, 52 गढ़ों के नाम दिए जा रहे हैं जो गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित थे:

· पहला गढ़ है नागपुर गढ़, ये जौनपुर परगना में था। यहां नागदेवता का मंदिर है। यहां के अंतिम राजा भजनसिंह हुए।

· दूसरा गढ़ है कोल्ली गढ़, यहां बछवाण बिष्ट जाति के लोग रहते थे।

· तीसरा गढ़ है रवाणगढ़ , ये बद्रीनाथ मार्ग में पड़ता है और यहां रवाणी ​जाति की बहुलता थी।

· चौथा गढ़ है फल्याण गढ़, ये फल्दकोट में था और फल्याण जाति के ब्राहमणों का गढ़ था।

· पांचवां गढ़ है वागर गढ़, ये नागवंशी राणा जाति का गढ़ था।

· छठा गढ़ है कुईली गढ, ये गढ़ सजवाण जाति का गढ़ था।

· सातवां भरपूर गढ़ है, ये भी सजवाण जाति का गढ़ था।

· आठवां गढ़ है कुजणी गढ़, ये भी सजवाण जाति से जुड़ा है, यहां के आखिरी थोकदार सुल्तान सिंह थे।

· नवां है सिलगढ़, ये भी सजवाण जाति का गढ़ था।

· दसवां गढ़ है मुंगरा गढ़, रवाई स्थि​त ये गढ़ रावत जाति का था।

· 11वां गढ़ है रैका गढ़ , ये रमोला जाति का गढ़ था।

· 12वां गढ़ है मोल्या गढ़, रमोली स्थित ये गढ़ भी रमोला जाति का था।

· 13वां ग़ढ़ है उपुगढ़, ये गढ़ चौहान जाति का था।

· 14वां गढ़ है नालागढ़, देहरादून जिले में इसे बाद में नालागढ़ी के नाम से जाना जाने लगा।

· 15वां है सांकरीगढ़, रवाईं स्थित ये गढ़ राणा जाति का था।

· 16वां है रामी गढ़, इसका संबंध रावत जाति से था।


· 17वां गढ़ है बिराल्टा गढ़, ये गढ़ रावत जाति का ही गढ़ था।

· 18वां है चांदपुर गढ़, ये सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप का गढ़ था।

· 19वां चौंडा गढ़ है, चौंडाल जाति का ये गढ़ शीली चांदपुर में था।

· 20वां गढ़ है तोप गढ़, ये तोपाल जाति का था।

· 21वां है राणी गढ़, इसकी ​स्थापना एक रानी ने की थी और इसलिए इसे राणी गढ़ कहा जाने लगा।

· 22वां हैश्रीगुरूगढ़, ये गढ़ पडियार जाति का था।

· 23वां है बधाणगढ़, यहां बधाणी जाति के लोग रहते थे।

· 24वां लोहबागढ़, ये गढ़ नेगी जाति का गढ़ था।

· 25वां है दशोलीगढ़, इस गढ़ को मानवर नाम के राजा ने प्रसिद्धि दिलायी थी।

· 26वां है कंडारागढ़, यहां कंडारी जाति के लोग रहते थे।

· 27वां है धौनागढ़ , ये धौन्याल जाति का गढ़ था।

· 28वां है रतनगढ़ यहां धमादा जाति के लोग रहते थे।

· 29वां गढ़ है एरासूगढ़, ये गढ़ श्रीनगर के ऊपर था।

· 30वां गढ़ है इडिया गढ़, यहां इडिया जाति के लोग रहते थे।

· 31वां है लंगूरगढ़, लंगूरपट्टी में इसके निशान अभी भी हैं।

· 32वां है बाग गढ़, ये नेगी जाति का गढ़ था।

· 33वां है गढ़कोट गढ़, ये गढ़ बगड़वाल बिष्ट जाति का था।

· 34वां है गड़तांग गढ़, ये भोटिया जाति का गढ़ था।

· 35वां है वनगढ़ गढ़, 36वां भरदार गढ़ है। : यह वनगढ़ के करीब स्थित था।

· 37वां चौंदकोट गढ़, इसके अवशेष चौबट्टाखाल के ऊपर पहाड़ी पर अब भी दिख जाएंगे।

· 38वां है नयाल गढ़, ये नयाल जाति का गढ़ था।

· 39वां है अजमीर गढ़, ये पयाल जाति का था।

· 40वां है कांडा गढ़, ये रावत जाति का गढ़ था।

· 41वां है, सावलीगढ़, 42वां बदलपुर गढ़

· 43वां संगेलागढ़, यहां बिष्ट जाति के लोग रहते थे।

· 44वां गुजड़ूगढ़,

· 45वां जौंटगढ़,

· 46वां देवलगढ़,

· 47वां लोदगढ़,

· 48वां जौंलपुर गढ़,

· 49वां चम्पा गढ़,

· 50वां डोडराकांरा गढ़,

· 51वां भुवना गढ़,

· 52वां गढ़ है लोदन गढ़

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52 गढ़ का महत्व

  1. सुरक्षा और राजनीतिक शक्ति: इन किलों की स्थापत्य कला और सामरिक महत्व ने इन्हें महत्वपूर्ण बना दिया था। हर किला एक सामरिक स्थान पर बनाया गया था, जिससे दुश्मनों से सुरक्षा प्राप्त हो सके और अपने क्षेत्र पर निगरानी रखी जा सके।
  2. सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र: कई गढ़ धार्मिक स्थल के रूप में भी प्रतिष्ठित थे, जहां स्थानीय देवताओं की पूजा की जाती थी। गढ़ों में अक्सर मंदिर होते थे, जो धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बनते थे।
  3. एकीकरण का प्रतीक: राजा अजय पाल द्वारा गढ़ों का एकीकरण गढ़वाल साम्राज्य के राजनीतिक एकीकरण का प्रतीक था। उन्होंने 52 गढ़ों को एकजुट करके गढ़वाल राज्य की स्थापना की, जो कई सदियों तक चला।
52 गढ

गढ़ों का पतन

गढ़वाल के “52 गढ़ों” का इतिहास गढ़वाल की प्राचीन राजनीतिक और सामाजिक संरचना को दर्शाता है। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में ये गढ़ किले या दुर्ग थे, जिनका निर्माण मुख्य रूप से स्थानीय रजवाड़ों और राजाओं ने अपनी रक्षा और सत्ता के विस्तार के लिए किया था। गढ़वाल के 52 गढ़ों का उल्लेख इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर और राजनीतिक सत्ता की ताकत के रूप में किया जाता है।

समय के साथ, जैसे-जैसे आधुनिक राज्य प्रणाली का विकास हुआ, इन गढ़ों का महत्व कम होता गया। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, अधिकांश गढ़ या तो ध्वस्त हो गए या छोड़ दिए गए। हालांकि, ये गढ़ आज भी गढ़वाल की धरोहर और इतिहास के प्रतीक हैं।गढ़वाल के 52 गढ़ों का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व आज भी उत्तराखंड के लोगों के मन में बसा हुआ है। वे इस क्षेत्र की पुरानी गौरवशाली परंपरा और स्वतंत्रता का प्रतीक माने जाते हैं।

गढ़वाल के गढ़ों का पतन एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जिसने इस क्षेत्र की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना में बड़ा बदलाव लाया। गढ़ों का पतन धीरे-धीरे हुआ, और इसमें कई प्रमुख कारक और घटनाएं शामिल थीं, जिनमें आंतरिक संघर्ष, बाहरी आक्रमण, औपनिवेशिक शासन और आधुनिक राज्य प्रणाली का विकास प्रमुख थे।

1. आंतरिक संघर्ष और अस्थिरता:

गढ़वाल क्षेत्र के गढ़ और उनके शासक शुरू से ही आंतरिक संघर्षों में उलझे रहते थे। हर गढ़ का अपना राजा होता था, और अक्सर इन रजवाड़ों में आपसी टकराव होता था। यह आंतरिक संघर्ष गढ़वाल की राजनीतिक अस्थिरता का प्रमुख कारण था। राजा अजय पाल ने जब 14वीं शताब्दी में गढ़वाल के 52 गढ़ों को एकीकृत किया, तो अस्थायी रूप से शांति और स्थिरता आई, लेकिन उनके बाद फिर से इन रजवाड़ों में सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया। इस आंतरिक अस्थिरता के कारण कई गढ़ कमजोर हो गए और बाहरी हमलों के शिकार बने।

2. गोरखा आक्रमण:

18वीं शताब्दी के अंत में गढ़वाल पर सबसे बड़ा संकट गोरखा आक्रमण के रूप में आया। गोरखा सेना ने 1791 में गढ़वाल क्षेत्र पर हमला किया और तेजी से विस्तार करते हुए इसे अपने अधीन कर लिया। गोरखाओं ने गढ़वाल पर कई वर्षों तक शासन किया, और इस दौरान कई गढ़ों को या तो नष्ट कर दिया गया या उन्हें कब्जे में लेकर दुर्गम स्थिति में छोड़ दिया गया। गढ़वाल के शासकों की असमर्थता ने इस क्षेत्र को गोरखाओं के अधीन कर दिया, और गढ़ों की संरचनात्मक कमजोरी और अव्यवस्था के कारण इनकी शक्ति और महत्व तेजी से कम हुआ।

3. सुगौली संधि और ब्रिटिश हस्तक्षेप:

गोरखा युद्धों के बाद, 1815 में “सुगौली संधि” के तहत गढ़वाल क्षेत्र को गोरखाओं से मुक्त किया गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गढ़वाल के पूर्वी हिस्से को अपने अधीन कर लिया और पश्चिमी गढ़वाल को राजा सुदर्शन शाह को सौंप दिया। इस विभाजन के कारण गढ़वाल क्षेत्र की एकता फिर से टूट गई, और ब्रिटिश शासन ने स्थानीय राजाओं की सत्ता को सीमित कर दिया।

ब्रिटिश शासन के दौरान गढ़ों की आवश्यकता कम हो गई, क्योंकि ब्रिटिश प्रशासन ने अपनी सैन्य और प्रशासनिक प्रणाली को मजबूत किया। इसके परिणामस्वरूप, गढ़ों की रखरखाव और उपयोगिता में गिरावट आई। कई गढ़ या तो ब्रिटिश शासन के तहत खंडहर बन गए, या पूरी तरह से छोड़ दिए गए।

4. आधुनिक राज्य प्रणाली का उदय:

19वीं और 20वीं शताब्दी में जब आधुनिक राज्य प्रणाली का विकास हुआ, तो गढ़ों का सामरिक महत्व समाप्त हो गया। गढ़ों का उपयोग प्राचीन समय में मुख्य रूप से सुरक्षा, प्रशासन और राजनीतिक शक्ति के लिए किया जाता था, लेकिन आधुनिक शासन व्यवस्था में इनकी जगह कचहरियों, थानों और सरकारी भवनों ने ले ली। परिणामस्वरूप, गढ़ों का रखरखाव और पुनर्निर्माण नहीं किया गया, और वे धीरे-धीरे खंडहरों में बदलते गए।

5. प्राकृतिक आपदाएं और उपेक्षा:

गढ़वाल के गढ़ों का पतन प्राकृतिक आपदाओं, जैसे भूकंप, बाढ़ और बारिश के कारण भी हुआ। ये किले मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित थे, जो समय-समय पर प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित होते थे। इसके अलावा, गढ़ों की देखभाल की उपेक्षा और मरम्मत की कमी ने भी इनके पतन में योगदान दिया।

6. गढ़ों का सांस्कृतिक महत्व:

हालांकि गढ़ों का राजनीतिक और सैन्य महत्व समाप्त हो गया, उनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व आज भी कायम है। गढ़ों के खंडहर आज भी गढ़वाल की प्राचीन विरासत की गवाही देते हैं। स्थानीय लोगों में गढ़ों से जुड़ी लोककथाएं और किंवदंतियां प्रचलित हैं, जो गढ़ों के गौरवशाली अतीत की याद दिलाती हैं।

7. संरक्षण के प्रयास:

हालांकि कई गढ़ खंडहरों में बदल चुके हैं, हाल के वर्षों में कुछ गढ़ों के संरक्षण के प्रयास किए गए हैं। उत्तराखंड सरकार और स्थानीय समुदाय मिलकर कुछ महत्वपूर्ण गढ़ों को संरक्षित करने की दिशा में काम कर रहे हैं। पर्यटन के विकास और गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए इन गढ़ों का पुनर्निर्माण और मरम्मत भी की जा रही है।

8. कुछ प्रमुख गढ़ों का पतन:

  • श्रीनगर गढ़: गढ़वाल की पुरानी राजधानी श्रीनगर के गढ़ को गोरखा आक्रमण और बाद में ब्रिटिश नियंत्रण के कारण काफी नुकसान हुआ। गढ़ की ऐतिहासिक संरचना धीरे-धीरे समाप्त हो गई, और आज इसका केवल अवशेष ही बचा है।
  • चांदपुर गढ़: चांदपुर गढ़ भी गढ़वाल के प्रमुख गढ़ों में से एक था, लेकिन समय के साथ इसका महत्व कम हो गया और यह खंडहर में तब्दील हो गया।
  • कुंजापुरी गढ़: यह गढ़ आज भी धार्मिक महत्व रखता है, लेकिन इसका राजनीतिक महत्व समाप्त हो गया है। इसे एक धार्मिक स्थल के रूप में संरक्षित किया गया है।

निष्कर्ष:

गढ़वाल के 52 गढ़ों का पतन कई ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक कारणों का परिणाम था। गढ़ों की शक्ति और सामरिक महत्व समय के साथ समाप्त हो गया, लेकिन वे गढ़वाल की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहे।

By Ashu

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